परम्परा और रिवाजों के नाम पर पीढ़ी दर पीढ़ी एक दूसरे का ही गला घोंटती महिलाएं , एक दूसरे के ही स्वाभिमान को कुचल कर आगे बढ़ने की कोशिश करती महिलाएं, अति विशिष्टता क्रम में अग्रणी साबित होने की इक्छुक अति महत्वकांछि महिलाएं, वर्ष में एक बार महिला दिवस पर सम्मानित होने की चाह में पूरा वर्ष बिताती महिलाएं, फूलों गुलदस्तों समारोहों में मुस्कुराती महिलाएं, पीछे छोड़ जाती है ढ़ेर सारा अवसाद, खुदगर्जी, और तनाव...... दरअसल वो ख़ुद को ही पहचानने से इनकार कर देती है "तमगा ए औरत" बनने के बाद, तारीफों, मनुहारों के दर्पण देख देख जब इतराने लगती हैं, भूल जाती है अपने ही असल आस्तित्व को और अहंकार के दर्प में खो देती है गृह लक्ष्मी सा स्वरूप..... उसकी बगिया के प्यारे खूबसूरत नन्हे फूल,धँसती आँखों में जब बीमार सी नींद पूरी करते है "बड़ी माँ" की गोद में.... नहीं जानती कितना अनमोल मातृत्व सुख खो देती है अपनी पहचान बाहर तलाशती महिलाएं, अहसास करती है तब उम्र पूरी बीत जाने के बाद महज़ एक ख़बर सी बन रहा जाती है,,अख़बार के पन्नों पर, दिन गुजर जाने के बाद, भूल जाते है अप्सराओं को भी इंद्र यौवन