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Showing posts from October, 2019

शिवाय त्वम मम् आराध्य

"शिवाय" त्वम मम् आराध्य हिमालय सा अटल, हिमालय से भी निश्छल, शिवाय तुम अजेय हो, स्मृति में बने स्मृति से जुड़े, शिवाय तुम श्रधेय हो, अनन्य, अपार, तुम सदैव पूज्यनीय, दशक से तप में लीन हो प्रयत्न न कोई डिगा सका, किन्तु ये बहुत हुआ, त्रिनेत्र अब मुक्त करो, प्रकृति का नियम यही शिव और शक्ति एक हो, जन्म जन्मांतर से जुड़ी जो पार्वती वही श्रेष्ठ है, मौन से भी मौन हो शब्द स्वयं में विलीन क्यों, भावनाये प्रस्फ़ुटित करो सृष्टि को संचार दो, पूज्यनीय सदैव तुम ह्रदय में सर्वश्रेष्ठ हो,       विसंगतियां भले विस्तृत रहे           प्रणाम तुम्हें सदैव है।।

दिपावली

जब मन का कोना अंधकार से भरा हो, और चहुँ ओर हो अज्ञानता का तिमिर..... दीपक की एक लौ जलाना, ज्ञान की बाती प्रेम तैल में.... ज्योत वो भर देगी प्रकाश से,हर लेगी मन की अज्ञानता, और जो धारा प्रेम की बहेगी.....    वो दीपावली कहलायेगी।

तलाश स्वयं की

बड़े अजीब ये हालात है हमेशा परछाई के पीछे भागता क्यूँ इंसान है, तेज धूप में काला चश्मा चढ़ाता है अंधियारे में आँखे टिमटिमाता है, जिन्दगी बीत जाती है तो उनमें जीवन तलाशता है, पहले रेगिस्तान उगाता है फिर गहरे खोद पानी तलाशता है.......

जुनून सी जिंदगी

अनजाने से सफ़र में कई बार चलती है जिंदगी, मंझिल मिले न मिले हर रोज रास्ता तय करती है जिंदगी, कभी किसी खूबसूरत से मोड़ पर आ रुकती है जिंदगी, तो कभी बेवज़ह साबित होने को होड़ में सज़ा भी जीती है जिंदगी, कुछ इस तरह अपने ही जुनून में चलती है जिंदगी।।

समीकरण तेरा मेरा

समीकरण अच्छे और बुरे का, समीक्षा सही और गलत की तौलने वाला तू कौन? जब आँकने वाला ....  "वो ऊपर है बैठा" नज़रिया तेरा मुझे देखने का, सवाल तेरे भेदती नजरों सा, हिसाब लेने वाला तू कौन? मेरी परवरिश करने वाला,  "वो जब ऊपर है बैठा" ना लिया तुझसे न दिया तुझको, ना माँगा हाथ फैला कर कभी आँसू दिखा के,  जिम्मेदारियों की मेरी मुझे एहसास दिलाने वाला तू कौन? जब खिलाने वाला मुझे   "वो ऊपर है बैठा" ना दौलत न शोहरत ना लम्बी उम्र चाहिए, "उसने" जितनी अता करी बस मेरा वो हक़ चाहिए, सम्मान लेने से पहले सम्मान देने का फर्ज़ जानती हूँ, सिखाओ ना मुझको मैं ख़ुद मेरा अंजामे हर्श जानती हूँ।।

उतरती सीढियां उम्र की

उतरती सीढ़ियां उम्र की, बुढ़ापे के दहलीज़ सी, ज्यादा दूर नही पर मेनोपॉज की रफ़्तार सी.... उतरता सा यौवन और सिंदूरी माँग के किनारे चांदी के तार सी, अधनींदें और बिना सुकून तकिये पर पलटती जैसे कोई रात सी , अगली सुबह आँखों के घेरे पर बढ़ती कालिमा से लाचार सी....  लिपस्टिक में मुस्कुराते होंठो के किनारे अंग्रेजी में थोड़ा कम दिल दहलाते  "फाइन लाइन" सी, चुपके से छिपा नहाने को ले जाते रसोई के किसी घरेलू उबटन की अन छिपे पैनी नजरों से, बचती पतली धार सी... आईने के आगे आधुनिक परिधानों में भी बेरुखी से  ख़ुद को बेडौल दिखाते शरीर की आह सी, पीछे से मुस्कुराते पति की नजरें  पैनी कटार सी.... सुबह की दौड़ती भागती उम्र, शाम होते होते ढलते सूरज की लाल आग सी, और ना जला पाने की तपिश में स्वयं में ही सुलगती चिड़चिड़ी वाणी के अंदाज सी, हर हफ्ते दो हफ्ते पर मल्टी विटामिनों और दर्दनिवारक गोलियों की मोहताज़ सी.... हाय कैसे कहूँ की मेरी उम्र है अब पैतालीस को भी पार सी, कब बीती, कितनी तेज़ थी रफ़्तार, घड़ी कलेंडर महीने साल नहीं कुछ थी दरकार, कठपुतली सी नाचती, रोती हँसती हँसाती मेरी उम्र ने, मुझ पर स

निर्जला

व्रत रखती हैं पुरुषों के नाम के, उम्र भर निर्जल से, अनजाने में बढ़ा जाती है उम्र अपनी, जी लेती है पुरुषों से ज्यादा... औरतें भोली होती है, पति की लंबी उम्र की कामना कभी चाँद तो कभी सूरज को दीया दिखा कर पूरे करती हैं, और उन्हीं पुरुषों से करती है उम्र भर तकरार, अपने स्त्रीत्व की जंग में जीत हासिल कर सके... भूल जाती हैं उनकी जीत और पुरुषत्व की हार के बीच ढाल बन खड़ी है वो ख़ुद ही औरत के किसी दूसरे स्वरूप में...

दुर्गा आदि से अनंत

मैं योग माया, महा माया... श्री विष्णु के नेत्रों में योगनिद्रा रूप अवस्थित थी, बाद प्रलय के जब सम्पूर्ण पृथ्वी थी  जलमग्न और अंधकार में डूबा ब्रम्हांड..... मधु कैटभ दोउ दैत्य बन जब प्रकट हुए कर्ण मैल से तुम, गर्व में दर्पित स्वयं पालनकर्ता (विष्णु) को दे डाली चुनौती और सृष्टिकर्ता(ब्रह्मा)को आहत कर डाला अपने मद में चूर हुए तुम, मैं तो स-स्नेह आंखे मूंदे नेत्रों, भुजाओं और वक्षस्थल में निर्लिप्त पड़ी थी श्री विष्णु में खोई हुई थी, सृष्टिकर्ता स्वयं करबद्ध हो जब करने लगे आवाहन मेरा... तत्क्षण मैंने मोह को त्यागा कर्म को अपने त्वरित पहचाना, और तुम्हारा वध करवाया, अपनी आसुरी प्रवृति से ग्रसित तुमने फिर महिसासुर बन आधिपत्य जमाया, त्राहि त्राहि कर सुर-नर शरण मांगते ब्रह्मा विष्णु महेश के आगे, तेजपुंज त्रिदेव से निकला... समस्त देवों के शरीर से प्रादुर्भूत वह तेज पुंज अतुलनीय था मेरा , चिक्षुर, चामर, उदग्र, महाहनु और असिलोमा.... वाष्कल, विडाल सहस्त्रो महादैत्य संग महिषासुर का वध कर मैं महिषासुरमर्दिनि कहलायी, तामसी प्रवृति तेरी जाती नही पर, तो मैं भी तो हूँ विष्णुमाया ....