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काव्य संकलन "ये तुम्हारा शहर है"

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 आदरणीय सभी बंधुओं से निवेदन है की मेरा प्रथम एकल काव्य संकलन शीर्षक:- 🌼"ये तुम्हारा शहर है"🌼 हेलो फ़्रेंड्स! मैं सारिका चौरसिया , मेरी पहली काव्य संकलन "ये तुम्हारा शहर है" जिसका विमोचन 1जून को हुआ था और आप सब का भरपूर प्यार मिला था,, जैसी की जानकारी मिली! कुछ पाठको को किताब सम्बंधित जानकारियां उपलब्ध नहीं हो पा रही,तो अवगत कराना चाहूँगी की ,,यदि आप किन्ही कारणों से यह पुस्तक नहीं प्राप्त कर पा रहे ! तो कृपया दिए गए व्हाटसअप नम्बर पर सम्पर्क करें और पुस्तक के लिये आर्डर करें!! व्हाटसअप नंबर:- 9696755599 यह किताब ना केवल एककाव्य पुस्तक है बल्कि यह उन सभी सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक और पारिवारिक भावनाओ का संगम है जिसे हम सभी अपनी जिंदगी में किसी न किसी मोड़ पर महसूस करते है किंतु व्यक्त नहीं कर पाते, प्रकृति से जुड़ी हमारी जिम्मेदारियां, जीवन के प्रति हमारा दृष्टिकोण और आधुनिकीकरण में बढ़ती महत्वाकांक्षाएं जिन्हें पूरा करने की होड़ में हम कहीं ना कहीं अपने अपनों को भी आहत करने से  पीछे नहीं हटते,, मेरी प्रत्येक कविता आपको कुछ ना कुछ सन्देश देती प्रतीत होगी। कृपया इस किता

ये तुम्हारा शहर है!

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मेरी पहली काव्य पुस्तक पर पटियाला (पंजाब) से लेखक समीक्षक परमजीत सिंह भुल्लर द्वारा की गई खूबसूरत समीक्षा U tube पर. Thank you परमजीत सिंह जी🙏😍https://youtu.be/hsklANhsFiU

काव्य संग्रह पुस्तक :- ये तुम्हारा शहर है!!

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  नाम:-सारिकाचौरसिया। जन्म तिथि:- 22-4-74 पिता:-श्री कृष्ण प्रसाद गुप्त। पति:- श्री अनिल कुमार चौरसिया। शिक्षा:- मनो विज्ञान स्नातक एवं चित्रकला स्नातक। व्यवसाय:- गृहणी एवं स्व व्यवसायी। वर्तमान पता:-मिर्ज़ापुर उत्तर प्रदेश। उपलब्धियां:- सांझा संकलनों, पत्रिकाओं  और समाचार पत्रों में में  कविताओं, कहानियों, लघ कथाओं ,लेखों आदि की प्रस्तुति, कंटेंट राईटर। फेस बुक काव्य पेज:- "सारिका शब्द सार"। https://sarikashabdsaar.blogspot.com/

कितने सच्चे हम स्वयं!!

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  अब न्यूज़ देखने का मन नही करता,,  खबरों से मन आहत रहता है,मौतों के तांडव के बाद भी इंसान नही सुधर रहा, लोग मर रहे है, ऑक्सीजन की कालाबाजारी जोरों पर है तो रोज़ ही सुन रही थी,,अभी-अभी समाचार देखा,,  मुंबई और अहमदाबाद जैसे बड़े शहरों में साधारण परिवेश वाले घरों में वर्ष भर से कोरोना परीक्षण किट बिना स्वच्छता के किसी नियम पालन के ठेकेदारों द्वारा धड़ल्ले से बनवाई जा रही, जमीन पर महिलाएं बच्चे सब बैठे मिल कर टेस्टिंग स्टिक की पैकिंग कर रहे थे,  समाचार प्रकरण में उनके चेहरे धुंधले किये हुए थे बात भी वाजिब सी है फैक्टरी उनकी नही, वे मात्र वर्कर है जो घरों में बैठे-बैठे काम कर के पैसे कमा रहे,, जिन्हें इस काम की विभितसिका नही मालूम या फिर वे आर्थिक मजबूरी के कारण इतने जागरूक नही बन या रहे कि बिना मास्क बिना ग्लब्स, बिना किसी हाइजीनिक व्यवस्था के इस तरह  स्टिक की पैकेजिंग कितनी सुरक्षित है।इन टेस्टिंग स्टिक्स से टेस्ट होने के बाद रिपोर्ट क्या और कितनी सही आएगी ये तो पता नही, अपितु संक्रमित होने की संभावना जरूर बढ़ जाएगी।  और तो और शाम को न्यूज़ चैनलों की डिबेट में फिर सरकार को दोष दिया जाने लगेगा

सुख का सूरज!!

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 सुबह सूरज और सन्नाटा.... इन तीन शब्दों का संयोग और रच जाता है सारिका में 'शब्दों का सार'। सुबह जब सूर्य अपनी लालिमा बिखेर रहा होता है तब उन्नीदें से सन्नाटें में सौंदर्य बड़ी सादगी से अपनी छँटा बिखेर रहा होता है, और फैलती है चारो तरफ उस हल्की हल्की सूर्य ऊष्मा की ऊर्जा.... ये अद्भुत शक्ति होती है अपने अंदर झांकने की, पहचानने की, अपने आप से बातें करने की,, तब उस पल बाहरी दुनिया से मन मानो कट जाता है ,अपने अलावा कोई और नहीं होता, सिवाय एक उसके!  जिसमें हम स्वयं को समाहित कर चुके होते हैं!! और तब ऊर्जा प्राप्ति क्रम में सूर्योदय के इस प्रथम स्पर्श से नकारात्मकता छंटने लगती है और प्रत्येक गहरी सांस सकारात्मक करती जाती है।    जपा कुसुम संकाशं काश्यपेयं महा द्दुतिम। तमोरिसर्व पापघ्नं प्रणतोअस्मि दिवाकरम्।।

मत करो भूल, पछताओगे!

 शीर्षक:--"मत करो भूल, पछताओगे"  प्रत्येक साँस पर महामारी से भारी प्रतिपल व्याकुल मन आशंकित और विचलित! शवों की बढ़ती गिनतियों से गुजरता आज अभी जीवित,और कल अचानक निर्जीव बनता तन!! श्वांस -श्वांस उधार मांगता कृत्रिम यंत्रो की  राह देखता। परिजन कलप रहे !दौड़-दौड़ अनुनय विनय में लगे!!  स्वजनों के वियोग का डर या स्वयं को सुरक्षित रखें की चेतना, टकरा रही स्वयं के ही अंतर्मन से। प्रार्थना का स्वरूप बदल गया, ईश्वर से पहले डॉक्टर के दर पर मत्था टिका गया, जागो मानव ! अब भी जागो!! दो गज की दूरी और मास्क मुख पर सम्भालो, मत करो भूल, पछताओगे,, अपने पीछे बेसहारा और अनाथ परिवारों को अपने कर जाओगे।।

सिनेमा ! हमारी विचारधारा का एक प्रवाह!!

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  फिल्में हमारे समाज का आईना होती है ये हम बचपन से सुनते आ रहे है, फिल्में, उपन्यास, कहानियां, लोक कथाएं, किवदन्तियां ,, ये सभी समाज के विभिन्न वर्गों से समय समय  पर निकल कर सामने आती हैं और हमारे  सामने हमारे ही सामाजिक रहन सहन, परिवेश और विचारधारा का एक आवरण सा खींच जाती है।  पीढ़ी दर पीढ़ी हम जो अपने परिवार, पूर्वजो द्वारा दी गयी शिक्षा और रिवाजो को जीते है उन्हें ही हम कहीं ना कहीं कहानियों के माध्यम से लोक कथाओं में पिरो कर तो कभी किवदंतियों के मध्यम से आने वाली पीढ़ी को हस्तांतरित करते जाते है।। आधुनिक समय मे इसमें प्रमुख भूमिका सिनेमा ने निभाई ,  हम सभी ये अच्छी तरह जानते है कि   पढ़ी हुई चीजो से कहीं ज्यादा देखी हुई चीजें हमारे  दिल और दिमाग पर ज्यादा असर डालती है,, शब्दो मे लिखी हुई बाते जहां दिमाग पर बोझ सी प्रतीत  होती है वहीं कथाक्रम में सुनियोजित तरीके से मनोरन्जन द्वारा कही ज्ञान वर्धक बाते हमारे दिल और दिमाग को उस दिशा में जागरूक बनने की अभिरुचि बढ़ाती है।  यही कारण है कि, पारिवारिक एकता को दर्शाने वाली फिल्में जहां परिवार के प्रति कर्तव्य भावना भरने में सहायक रही वहीं स्वतन्

अनुभव के शहर में!!

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 विश्व कविता दिवस, शीर्षक:- अनुभव के शहर में!! कविताये ढूंढती है मन के मुकाम! जागती है शब्दों में, घूमती है विचारो के नगर में,, और विचरण के क्रम में रुकती जाती है यादों के हर उस चौराहे पर.... जिससे हो कर उम्र गुजरी होती है! अनुभव के शहर में, गलियों, मुंडेरों से झांकता कोई पुराना ख़्वाब आ खड़ा होता है सामने.... बह जाती है स्याही की धार में!  रंगने को कोरा अहसास!!

【ढेरों सुंदर परिधान! फिर फटीजींस ही क्यों बने आपकी पहचान!!】

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 आजकल लड़का हो या लड़की सभी फटे चिथड़े कपड़े पहनना "cool" मान रहे,,विदेशों में ऐसे फ़टे चिथड़े कपड़े शायद वो ही बच्चे पहनना ज्यादा पसंद करते होंगे जिन्हें गर्मी ज्यादा लगती होगी या फिर उन्हें स्किन एलर्जी होगी और खुजलाने में सुविधा ही मिलती होगी ! या फिर मम्मियों को बिल्कुल भी फुर्सत नही होगी और ऐसी हालत में! "किसी एक बच्चे ने फ़टी जींस को पहनने से हुई झेंप को मिटाने के लिये इसे दोस्तों के बीच फ़ैशन का नाम दे दिया होगा"।  किन्तु हमारे देश मे ऐसे कपड़े "comfertable"  "faishonable" "cool"  "wow" जैसी feeling भले ही देते हो,या ना देते हो,, किन्तु माता पिता बहुत ही गरीब है या देश का युवावर्ग सच मे बहुत बेरोजगार है, ये feeling जरूर देते हैं।  बच्चों! होली का त्योहार निकट  ही है!!  इस बार इन कपड़ो को होलिका दहन की अग्नि में स्वाहा कर दो।  क्योंकि गरीब से भी गरीब व्यक्ति, चाहे वह स्त्री हो, पुरुष हो,या बच्चा!,  वो सभी खुद का सामाजिक स्तर बनाये रखने के लिये " साफ़,और दुरुस्त कपड़े पहनना पसंद करता है। भले ही उसके कपड़े "नए" हो ना हो व

परिपूर्ण !!

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विषय:- नारी शीर्षक:- परिपूर्ण!! तेरी गोद मे महफूज़ सी गहरी नींद जो मै सो गई!  मैं नारी बन गयी!!  तेरे संग लड़ती झगड़ती खुशियां बांटती जो मैं पल गयी !  मैं नारी बन गयी!!   तेरे हाथ में मेरा हाथ और "मैं" से "हम" की एक परिभाषा जो मैं ओढ़ गयी! मैं नारी बन गयी!! मेरी कोंख में तू जो रच गया मातृत्व मुझमें भर गया! मैं नारी बन गयी!! प्रतिस्पर्धा! आगे रहूँ की पीछे चलूँ, दुविधा!छाया बनूँ की शरण मे रहूँ!!  बढ़ती दुनिया और हौसलों की बाते...  बस इतना जानती मैं !  तुम में ही लीन हो कर तुम मय जो हो गयी!!   तुम संग सब वचन निभाये "परिपूर्ण" हो गयी, चपल चँचल, धीर गम्भीर, सबल और प्रबल...  सृष्टि निर्मात्री मैं, और कभी विनाशक भी ना कोई रंज ना कोई संशय, दिल में उमंगों भरी तरंग.... मैं नारी थी! मैं नारी हूँ! मैं नारी ही रहूँगी!!