कितने सच्चे हम स्वयं!!


  अब न्यूज़ देखने का मन नही करता,,  खबरों से मन आहत रहता है,मौतों के तांडव के बाद भी इंसान नही सुधर रहा, लोग मर रहे है, ऑक्सीजन की कालाबाजारी जोरों पर है तो रोज़ ही सुन रही थी,,अभी-अभी समाचार देखा,,  मुंबई और अहमदाबाद जैसे बड़े शहरों में साधारण परिवेश वाले घरों में वर्ष भर से कोरोना परीक्षण किट बिना स्वच्छता के किसी नियम पालन के ठेकेदारों द्वारा धड़ल्ले से बनवाई जा रही, जमीन पर महिलाएं बच्चे सब बैठे मिल कर टेस्टिंग स्टिक की पैकिंग कर रहे थे,  समाचार प्रकरण में उनके चेहरे धुंधले किये हुए थे बात भी वाजिब सी है फैक्टरी उनकी नही, वे मात्र वर्कर है जो घरों में बैठे-बैठे काम कर के पैसे कमा रहे,, जिन्हें इस काम की विभितसिका नही मालूम या फिर वे आर्थिक मजबूरी के कारण इतने जागरूक नही बन या रहे कि बिना मास्क बिना ग्लब्स, बिना किसी हाइजीनिक व्यवस्था के इस तरह  स्टिक की पैकेजिंग कितनी सुरक्षित है।इन टेस्टिंग स्टिक्स से टेस्ट होने के बाद रिपोर्ट क्या और कितनी सही आएगी ये तो पता नही, अपितु संक्रमित होने की संभावना जरूर बढ़ जाएगी।

 और तो और शाम को न्यूज़ चैनलों की डिबेट में फिर सरकार को दोष दिया जाने लगेगा कि  सरकार की नाक के नीचे ये काम हो रहा, बात यहाँ भी सही है कि सरकारी तंत्र की बिना मिलीभगत के इस तरह के अवैध कार्य सम्भव नहीं। किन्तु क्या हम सभी नागरिकों के दिल, दिमाग और ईमान नहीं कि हम क्या कर रहे,, क्या करवा रहे और क्यों कर रहे।, इतनी बड़ी आपदा की स्तिथि में भी हम दवाओं, ऑक्सीजन की कालाबाजारी करते है,, हॉस्पिटल में बेड रिज़र्व कर के मनमाने दाम पर जरूरतमन्दों को तरसा तरसा कर उपलब्ध कराते है,, एम्बुलेंस, श्मशान लकड़ी, कितनी चीजों की गिनती की जाय, हम अभी इन सब से भी कमा रहे, और ये भूल रहे कि शायद अगला पेशेंट हमारे आपके किसी के भी घर से निकल कर सड़क पर एम्बुलेंस, दवा, इंजेक्शन और श्मशान में लकड़ी को तरस सकता है, एक एक साँस कीमती है।

 

 ना शहर ना गांव!!,परिस्तिथियां, और परवरिश जिम्मेदार प्रत्येक अव्यवस्था की,, शहरीकरण ने गांव से पलायन पर मजबूर किया,, शहर ने प्रतिस्पर्धा को जन्म दिया, आधुनिकीकरण को हमने जीवन का ध्रुव सत्य मान लिया गांव छोड़ कर अपनी जमीन से हम खुद कटते हैं, नेता हमें इस लिये धोखा देते हैं क्योकि हमारे ही अंदर के लालच की नब्ज़ को वो भली भांति समझते है,, नेता आसमान से नही उतरते, हमारे ही घरों में पैदा हुए बच्चें बड़े हो कर डॉक्टर, इंजीनियर, मजदूर और नेता भी बनते हैं। हम बच्चों को न्याय संगत शिक्षा देना भूल गए, हमने दौड़ में जितने वाली प्रतिस्पर्धा हमारे बच्चों में विकसित होने दी,, शिक्षा व्यवस्था भी हम जैसे ने ही बनाई जिसमे ज्ञान से ज्यादा अंको को तरज़ीह दी, अब बच्चा प्रत्येक अध्याय के एक एक शब्द को समझ कर पढ़ने में पूरा वक्त लगाएगा तो कोर्स पूरा नही कर पायेगा और प्रतिस्पर्धा में विजयी होने के लिये पासिंग मार्क्स की नही डिस्टिंग्सन मार्क्स की गैर जरूरी प्रणाली भी हममें से निकल कर शिक्षण व्यवस्था की कुर्सी पर बैठ किसी ने बनाई और हमने ही बच्चों को जबरदस्ती 100% नम्बर लाने का दवाब भी बनाया।

तो बच्चा क्या सीखा इन किताबों से केवल नम्बर पाना, अच्छे कॉलेज,के admision पाना, और जब इन सब कवायद में अभिवाहक ने अपनी पूरी कमाई झोंक दी या कर्जे ले कर पढ़ाया तो वापसी भी चाहिये, और त्वरित वापसी सीधे कारोबार या सीधी नौकरी व्यवस्था से तो होनी नहीं है उसके लिये कुछ तो तीन पांच वाला रास्ता चुनना ही पड़ेगा। और हमारी यही कमजोर नस हम में से ही निकले नेता पकड़ते है और वो हमारे और हम उनके महत्वकांक्षा की पूर्ति के माध्यम बनते हैं। हम बिना मेहनत सब पाना चाहते हैं नेता हमें प्रलोभन दे कर अपनी कुर्सी पाते हैं।

वही हाल धर्म से जुड़े, आस्था से जुड़े विवादों का भी हैं। दरअसल कमियां हमारी हैं इस सारी अव्यवस्था को जन्म देने वाले भी कहीं न कहीं हम खुद हैं। और बच्चे को खो कर गोद उजड़ती है ममतामयी मां की, मांग सुनी होती है पूर्ण समर्पित पत्नी की,, घर बिखरता है अहसहाय लाचार पिता का।

पहले हम खुद कानून व्यवस्था बिगाड़ते हैं फिर जब हम ख़ुद शिकार बनते हैं तब हमें वो तकलीफ़ समझ आती है। सभी को समझाया जा रहा था डिस्टेंस, सावधानी, लेकिन तब हम इसे बहुत हल्के में ले रहे थे,, मामूली समझ रहे थे,, तमाम असवधानियाँ और तमाम गैर कानूनी कर्म कर के  अब हम इस भय में जी रहे की अगली बारी किसकी, अगला समाचार किसके घर का🙏

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