स्वयं से स्वयं को सीखते हुए
जन्म की प्रक्रिया में गर्भ से ले कर मृत्यु तक जीवन के हर मोड़ पर प्रत्येक क्षण में हम कुछ सीखते हैं, मनुष्य से, मनुष्य द्वारा और मनुष्य के लिए, की गयी प्रत्येक अवस्था जीवन की वह स्वाभाविक शिक्षण व्यवस्था है जिसमें हम प्राकृतिक रूप से वह सब सीखते है जो जीवन जीने की दशा में जरूरी है, किंतु इसके अलावा हम बहुत कुछ ऐसा सीखते हैं, जिसे हम अनुभव कहते हैं, अपने आस पास के परिवेश, और वातावरण का असर हमारी जीवन शैली, रहन सहन और सोच विचार पर पड़ता है, सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु स्पष्ट उदाहरण है ...। शास्त्र अनुसार गर्भ प्रवास के अंधकारकाल में भी नारायण स्वयं शिशु के साथ होते हैं प्रत्येक क्षण उसे उसके पूर्वजन्म का स्मरण करते सत्य-असत्य की परिभाषा समझाते हैं ... शिशु जन्म और प्रथम रुदन के बीच का जो एक क्षण का अंतर होता है, ये वही अंतर होता है जिसमें नारायण पूर्व जन्म के स्मरण से उसे मुक्त करते हैं और स्वयं अंतरध्यान होते हैं, अंधकार से प्रकाश का पहला स्पर्श और नारायण का अलोप ही रुदन का कारण होता है ...। यहीं से शुरू होता है शिक्षण और संघर्ष का सफर, पहली भूख और माता से दूध पाने के लिए करुण रुदन, तत