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नफ़रत!!

आज एक नए किन्तु परिचित शब्द से सामना हुआ, नफ़रत!! बड़ा अजीब शब्द है ना ये भी.... मात्र चार वर्णों के संयोग से बने किन्तु अपने आप में गजब की नकारात्मकता फैलाये! न -------नाराजगी, फ-------फ़ासले, र---------रूठे त----------तन्हा,,,, अर्थात नाराजगी से बने फ़ासले,और रूठ कर हुए खुद में ही तन्हा, है.......ना। अक्सर हम ये सोचते है की फ़लाना हमसे नफ़रत करता है, या मुझे फ़लाने से नफ़रत है ,तभी तो दोनो पक्ष एक दूसरे को नजर उठा कर देखना पसन्द नही करते या फिर दूरियां  ही दूरियाँ है दरम्यां वगरह वगरह,,, वस्तुतः हम या कोई और,नफ़रत की इस डोर को थामते हैं दोनो तरफ से,,,ये किधर भी कम या ज्यादा हो सकती है, या फिर दोनो तरफ से जबरदस्त....... दरअसल होता बिल्कुल इसके उलट है, हम जिससे जितनी ज्यादा नफ़रत करते है अंतर्मन में हम उसे ही सबसे ज्यादा याद करते  है उसके इर्द गिर्द ही घूमती है हमारी विचारधारा,फिर वो चाहे सकारात्मक हो या नकारात्मक,, आख़िर क्यों है ये नफ़रत ??? आलोचनाओं से उपजी नाराजगी! स्वयं से स्वयं को तौल सके ऐसी पारदर्शिता का अभाव ? कमतर होने की बेचारगी, अपने किसी कमज़ोर नस पर ,किसी दुखती रग पर आकस्मिक पड़ता अकार

अटल सत्य

विश्वास या तो है या तो नही, प्यार या तो है या तो नही,, धैर्य की अंतिम सीमा अधीरता, क्रोध का आखिरी चरण विध्वंश.... स्तिथि बीच की कहीं, दरअसल होती ही नही। एक पल में टूटता अटूट विश्वास, एक बन्धन तोड़ता वर्षो का साथ,, संयम अपना खोते जहाँ से हम, वहीं से शुरू होती, दिशाहीनता की पहली शुरुआत।   विश्वास, संयम ,प्रेम की परकाष्ठता समर्पण में ही क्यों.... फिर समर्पण सर्वस्व का, स्वयं में ही शंकित क्यों।  भ्रम "मेरा है"  का इतना क्यों, भ्रम "समाप्ति" का भी आखिर क्यों?? तकदीर का लिखा.... 'जो मेरा है' ,मेरे लिया है बना मुझ तक लौट आना ही है, और जो ना आया, वो मेरा था ही नही.... ये अटल सत्य स्वीकार्य क्यों कर ना हो।।

स्वतंत्र से हम....

 किसी स्त्री को यदि परतंत्र करना हो तो उसकी आर्थिक स्वतंत्रता छीन लो स्त्री स्वयं तुम्हारे अधीन हो जाएगी... पराजित करना हो तो स्त्री से उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छीन लो, स्त्री स्वतः पराजित.... और हमारा समाज हमेशा से यही करता आ रहा है, बदला है, बहुत कुछ बदला है।आज वर्तमान समय में स्त्री कदम से कदम मिला कर या बल्कि दो कदम आगे ही चल रही है, किन्तु वो स्त्री बेटी होती है, पत्नी नही, पत्नी का स्थान आज भी वही है स्त्री स्वतंत्रता का ढोंग करने वाले हमारे इस समाज में गिनती की स्त्रियां समाजिक रूप से सम्मानित है, यहां मैं निश्चित रूप से फ़िल्म उद्योग को शामिल नही करना चाहूंगी क्योंकि मैं आज तक ये फैसला नही कर पायी की फ़िल्म उद्योग में स्त्रियां कामयाबी की चाह में खुद से अपना शोषण स्वयं करने का अधिकार देती है या उस उधोग का आधार ही स्त्री शरीर है। अपवाद स्वरुप उस क्षेत्र को मैं छोड़ देती हूँ ,तब भी कोई ऐसा क्षेत्र नही है जहाँ स्त्री अपनी नीजता का हनन होने से नही रोक पाती,जबर्दस्ती के अभिवादन, प्रशंसा या आलोचना सभी इस क्रम में शामिल है।स्त्री आजादी का ढोल पीटते समाज में स्त्री आज भी वहीं खड़ी है