स्वतंत्र से हम....

 किसी स्त्री को यदि परतंत्र करना हो तो उसकी आर्थिक स्वतंत्रता छीन लो

स्त्री स्वयं तुम्हारे अधीन हो जाएगी...

पराजित करना हो तो स्त्री से उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छीन लो,

स्त्री स्वतः पराजित....

और हमारा समाज हमेशा से यही करता आ रहा है,

बदला है, बहुत कुछ बदला है।आज वर्तमान समय में स्त्री कदम से कदम मिला कर या बल्कि दो कदम आगे ही चल रही है, किन्तु वो स्त्री बेटी होती है, पत्नी नही,

पत्नी का स्थान आज भी वही है

स्त्री स्वतंत्रता का ढोंग करने वाले हमारे इस समाज में गिनती की स्त्रियां समाजिक रूप से सम्मानित है, यहां मैं निश्चित रूप से फ़िल्म उद्योग को शामिल नही करना चाहूंगी क्योंकि मैं आज तक ये फैसला नही कर पायी की फ़िल्म उद्योग में स्त्रियां कामयाबी की चाह में खुद से अपना शोषण स्वयं करने का अधिकार देती है या उस उधोग का आधार ही स्त्री शरीर है।

अपवाद स्वरुप उस क्षेत्र को मैं छोड़ देती हूँ ,तब भी कोई ऐसा क्षेत्र नही है जहाँ स्त्री अपनी नीजता का हनन होने से नही रोक पाती,जबर्दस्ती के अभिवादन, प्रशंसा या आलोचना सभी इस क्रम में शामिल है।स्त्री आजादी का ढोल पीटते समाज में स्त्री आज भी वहीं खड़ी है गौण नगण्य और पराजित,


किसी भी क्षेत्र में स्त्री यदि आगे बढ़ती दिख रही है तो जा कर कोई पूछे उनसे,, जिन सीढ़ियों पर वह चढ़ कर आ रही है उनमें से प्रत्येक पायदान पर उसने अपना आत्म सम्मान खोया होता है तब जा कर वह समाज के किसी मंच पर सम्मानित हुई होती है, कदम- कदम पर प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से उसे छला गया होता है, जिसकी शुरुआत वो जन्म लेते ही कर चुकी होती है,

यदि कहीं कोई स्त्री स्वेच्छा से स्वतंत्र जीवन जी भी रही होती है तो भी अप्रत्यक्ष रूप से वह कहीं ना कहीं  किसी ना किसी तरह परोक्ष अपरोक्ष छल सह रही होती है , या समझौते करके ही  स्वच्छन्द हुई होती है,,

उस स्वच्छन्दता के पीछे भी उसका कहीं न कहीं भावनात्मक या आर्थिक शोषण जरूर हो रहा होता है जिसको वो समय रहते नही  देख पाती या अपनी स्वतंत्रता की कीमत पर अनदेखा करती होती है, किन्तु वास्तव में एक उम्र के बाद वो उस का महत्व समझती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।

अपवाद हर जगह हर समय हर काल परिवेश में मौजूद होते हैं,,,,

 तो मैं ये नही कहती की समाज नही बदल रहा किन्तु आज भी समाज बहु, बेटी में फर्क करता है,, आज भी पत्नी के कर्तव्य पुत्री प्रेम से परे है, जबकि यही प्रिय पुत्री किसी की बहु और पत्नी बनती है।।

पुत्र हो या पुत्री स्वतंत्रता का परिवेश दोनो के लिये एक सा रखे साथ ही दोनो को ही एक से झोली से निकले संस्कार दे, जिस से कोई भी घर, कोई भी दफ्तर ,कोई भी व्यवसाय, कोई भी क्षेत्र हो ,स्त्री शरीर या स्त्री बल का अनुचित उपयोग न कर सके, भावनाओ से ना खेले, और उसके अधिकार ना छीने।।  


Comments

  1. Very true story .....hum sab ko iske bare me sochna hoga aur samaj me badlav lane ki jarurat hai taki naari ko samman aur barabari ka darja mil sake.

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