अहंकार का शमन और मानवता का अनुसरण

जल प्रलय के बाद सम्पूर्ण जगत अंधकार में डूबा था, अनेक अनेक प्रचंड प्रलय को भोग थक हार सुसुप्तावस्था में मानो सो रहा था,
तब ईश्वर ने पुनः सृष्टि को रचने का निर्णय लिया, जल के मंथन से पृथ्वी को पुनः प्रकट किया अद्भुत अद्भुत अतुलनीय सौंदर्य से विभूषित कर जगत को सजाया सँवारा, और सबसे सुंदर कृति मनुष्य की रचना की  अनेक अनेक गुणों से , सौंदर्य से उसे सम्पूर्ण किया, साथ ही मिट्टी के उस पुतले में जब प्राण भरे, 
तब उस प्राणपूर्ण  काया में अहं, परा अहं  की भी सम्पूर्णता भरी, प्रभु का उद्देश्य मात्र इतना था कि मनुष्य और पशु में अंतर विदित रहे,

 किन्तु हम इंसानों ने सबसे पहले सृष्टि के रचयिता की सुंदर सुंदर रचनाओं को अवहेलित कर सिर्फ और सिर्फ अहंकार को ही अपना सम्पूर्ण धन मान लिया,
अहंकार, अहं का ही विस्तृत स्वरूप जिसमे हम  स्वयं को ही ईश्वर मान लेते है अपने पुरुषार्थ में इतने डूब जाते है कि ईश्वर के समक्ष खुद को ही खड़ा कर लेते है "अहम स्वयं ईश्वर अस्ति"
 अहंकार समस्त रिश्तों, सम्बन्धो और मानवता के मूल्यों को कुचल जब आगे बढ़ता जाता है तो भूल जाता है कि सबसे पहले वह स्वयं को ही कुचल रहा है, अपने स्वयं के लिये ही एक
ऐसा आवरण तैयार कर रहा है जहां सिर्फ और सिर्फ अकेलापन और टूटन बच जाएगी।
युवावस्था में जब हम अपार शक्ति के स्वामी होते है दृढ़ निश्चयी होते है तब  बहुधा हम अनुचित इक्षाओ को भी उचित का जामा पहना पूर्ण करने का हर सम्भव प्रयास करते है और कामयाब भी होते है और तब यही कामयाबी हमारे ऊपर अहंकार का क्षद्म आवरण डाल देती है जिसकी गर्माहट में हम जीवन की वास्तविकता भूल जाते है ,
शने शने जब युवावस्था ढलती है और वृद्धावस्था का आगमन होता है तब जीर्ण और असमर्थ होते  शरीर का अहंकारी आवरण भी अपनी गर्माहट को खोता प्रतीत होता है तब हम ढूंढते है अपने अपनो को जिनको हमने अपने अहंकार वश कहीं दूर खो दिया था, किन्तु अब सिर्फ और सिर्फ अकेला पन ,तब हम दूर हो चुके अपनो को पुकारते है लेकिन क्योंकि प्रकृति बहुत उदार है और हमे वही लौटाती है जो हम उसे देते है  इसी क्रम में हमारे वो तथाकथित अपने भी क्योंकि युवावस्था के उसी अहंकारी दौर से गुजर रहे होते है जिस पर चल कर  कभी हम यहां तक पहुंचे होते है, अतः वह कातर ध्वनि वह करुण पुकार अनसुनी हो जाती है , एकांत के उन क्षणों में बारम्बार मनुष्य प्रभु का स्मरण करता है और क्षमा याचना करता है किंतु प्रारब्धवश वही मिलता है जो  उसने दिया होता है।।
अहंकार का शमन कर मानवता का अनुसरण ही ईश्वर प्रदत्त अमूल्य जीवन का एकमात्र मूल्य होना चाहिये।।



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  1. Plz like, share, nd comment if you read nd like my thoughts nd poems.

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