ठंडी मोहक हवाएँ बरसते बादल और झूमती पीपल की शाखाये, मुझे अपनी ओर खींचने को प्रकृति का इतना निमंत्रण काफी है ,, जल का कोई भी स्रोत हो मुझे लुभावना लगता है, समंदर, नदी, तालाब, झरने, बहता पानी, सब मेरे मन को छूते है, यहां तक की यात्रा के क्षणों में सड़क के किनारे के साथ के साथ पानी से भरे धान के खेत और गड्ढे भी मुझे आकर्षित करते हैं, हरे-हरे खेत पानी से भरे उनके किनारे जैसे मेरे साथ साथ मन ही मन मे दौड़ते, वर्षा ऋतु में में बहुधा दिल करता की बस गाड़ी की गति रुकवा कर उतर जाऊँ, और दौड़ कर पहुँच जाऊँ पानी से भरे हरे हरे मखमली कालीन पर जोर- जोर से कूदते कूदते पानी के उन गड्ढों को छपाक- छपाक की आवाज़ भर दूँ। । । मे मन की ये इच्छा मन मे ही रह जाती है…। बचपन मे पापा और अब फिर पतिदेव नहीं करने देते, शायद दोनो के ह्रदय में मेरी सुरक्षा का दायित्व मेरी खुशी से ज्यादा महत्वपूर्ण था और होना भी चाहिए, हम जिनसे जुड़े होते हैं उनकी सुरक्षा, उनकी देखभाल ही हमारा पहला दायित्व होना चाहिए। पर मेरे ससुर जी ...... वह कभी नहीं रोकते थे क्योंकि वह भी मेरी ही तरह जलप्रेमी, प्रकृति प्रेमी थे, उन्होंने ह
जन्म की प्रक्रिया में गर्भ से ले कर मृत्यु तक जीवन के हर मोड़ पर प्रत्येक क्षण में हम कुछ सीखते हैं, मनुष्य से, मनुष्य द्वारा और मनुष्य के लिए, की गयी प्रत्येक अवस्था जीवन की वह स्वाभाविक शिक्षण व्यवस्था है जिसमें हम प्राकृतिक रूप से वह सब सीखते है जो जीवन जीने की दशा में जरूरी है, किंतु इसके अलावा हम बहुत कुछ ऐसा सीखते हैं, जिसे हम अनुभव कहते हैं, अपने आस पास के परिवेश, और वातावरण का असर हमारी जीवन शैली, रहन सहन और सोच विचार पर पड़ता है, सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु स्पष्ट उदाहरण है ...। शास्त्र अनुसार गर्भ प्रवास के अंधकारकाल में भी नारायण स्वयं शिशु के साथ होते हैं प्रत्येक क्षण उसे उसके पूर्वजन्म का स्मरण करते सत्य-असत्य की परिभाषा समझाते हैं ... शिशु जन्म और प्रथम रुदन के बीच का जो एक क्षण का अंतर होता है, ये वही अंतर होता है जिसमें नारायण पूर्व जन्म के स्मरण से उसे मुक्त करते हैं और स्वयं अंतरध्यान होते हैं, अंधकार से प्रकाश का पहला स्पर्श और नारायण का अलोप ही रुदन का कारण होता है ...। यहीं से शुरू होता है शिक्षण और संघर्ष का सफर, पहली भूख और माता से दूध पाने के लिए करुण रुदन, तत
जल प्रलय के बाद सम्पूर्ण जगत अंधकार में डूबा था, अनेक अनेक प्रचंड प्रलय को भोग थक हार सुसुप्तावस्था में मानो सो रहा था, तब ईश्वर ने पुनः सृष्टि को रचने का निर्णय लिया, जल के मंथन से पृथ्वी को पुनः प्रकट किया अद्भुत अद्भुत अतुलनीय सौंदर्य से विभूषित कर जगत को सजाया सँवारा, और सबसे सुंदर कृति मनुष्य की रचना की अनेक अनेक गुणों से , सौंदर्य से उसे सम्पूर्ण किया, साथ ही मिट्टी के उस पुतले में जब प्राण भरे, तब उस प्राणपूर्ण काया में अहं, परा अहं की भी सम्पूर्णता भरी, प्रभु का उद्देश्य मात्र इतना था कि मनुष्य और पशु में अंतर विदित रहे, किन्तु हम इंसानों ने सबसे पहले सृष्टि के रचयिता की सुंदर सुंदर रचनाओं को अवहेलित कर सिर्फ और सिर्फ अहंकार को ही अपना सम्पूर्ण धन मान लिया, अहंकार, अहं का ही विस्तृत स्वरूप जिसमे हम स्वयं को ही ईश्वर मान लेते है अपने पुरुषार्थ में इतने डूब जाते है कि ईश्वर के समक्ष खुद को ही खड़ा कर लेते है "अहम स्वयं ईश्वर अस्ति" अहंकार समस्त रिश्तों, सम्बन्धो और मानवता के मूल्यों को कुचल जब आगे बढ़ता जाता है तो भूल जाता है कि सबसे पहले वह स्वयं को ह
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