सूर्योदय सूर्यास्त तक!!

अट्टाहास करती स्वयं के ही गुनेबुने पर... सामाजिकता का लबादा ओढ़े लाजवाब होती रही सुहाग के सफ़र पर!

 

  संदेशो पर वाहवाही के !

 नृत्य करती रही मेरी मौन संवेदनायें!!

 

सप्तपदी की याद में जीती रही बरस बरस !

 सुहाग सेज तुम दिल में बसाए रहे,


हाथों में हाँथ! कांधे पर सिर!!

सूर्योदय और सूर्यास्त भी संग लिए हो नदी का किनारा...

मैं मात्र एक सम्पूर्ण दिन समर्पण का मांगती रही!

तुम गिनती के कुछ करवट में मुझमें सिमटे रहे!!

मैं मेरा सर्वस्व समर्पित कर के भी

अधूरी....

 सिंदूर वेदी परिक्रमा वचन सब में ख़ुद को तलाशती रही,

 तुम कर्तव्य ही प्रेम! 

 इतिश्री कह गए।।


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