सन्तान आपका अंश है ! आपकी पारिवारिक सम्पदा नही!!


जिंदगी की उमंगों से कभी लबरेज़ "आयशा आरिफ़ खान " आज साबरमती की धारा में बहती चली जा रही थी,,और उसके साथ बहते चले जा रहे थे ढेरों मानसिक अवसाद....

निश्चय ही अन्तर्द्वन्द का भँवर!नदी में बन रहे भँवर से कहीं ज्यादा घुमावदार रहा होगा, जो मात्र कुछ ही क्षणों में शव बन चुके शरीर की परिधि से भी आगे निकलता सीधा समाधिस्थ हो गया!!

शव हमेशा अपने पीछे ढेरों सवाल छोड़ जाता है!

 कब? कैसे? कहाँ ?और बहुत बार क्यों??? भी!!!

कब? कहाँ? और कैसे?

ये सवाल बहुत मायने नही रखते पर क्यों??? बहुधा बहुत मायने रखता है।

 बच्चा जब किसी मनपसन्द खिलौने की जिद करता है तो माता पिता सामर्थ्यवान हो या ना हो, अपने बच्चे की फरमाईश पूरी करने की भरपूर कोशिश करते है, बच्चा यदि पुत्र है तो बेटे का करियर बनाने की दिशा में भारतीय माता पिता अपनी पूरी उम्र अत्यधिक कमाई के प्रयास में निकाल देते है, और यदि बेटी है तो अपनी पूरी जमा पूंजी उसके ब्याह में खर्च करने में एक बार भी नही हिचकते,, सिर्फ और सिर्फ ये सोच कर की बेटी को अच्छा ससुराल मिलेगा।

 

किन्तु शादी तय करते समय माता पिता एक सबसे महत्वपूर्ण बात दरकिनार कर देते है वो ये की माता पिता अपने बच्चों की पसन्द उनकी  दिली रजामंदी पूछना भूल जाते है या फिर रजामंदी लेंने की महज खानापूर्ति भर करते है,, सन्तान भी कुछ समय के लिये माता पिता के वात्सल्य सम्बन्धित प्रति अपने दायित्व पूरा करने के लिये उनका मान रखने को हाँ कर देते है,, और यहीं से शुरू होती है,, दाम्पत्य के सम्बन्ध का यथार्थ , अनेको रिश्ते तो साथ निभा जाते हैं उम्र भर को,,

 

लेकिन कुछ ऐसे भी होते जो आयशा जैसे अंजाम को प्राप्त होते हैं जो अत्यंत ही कष्टकारी है।

  सवाल सिर्फ दहेज जैसी विभित्सिका का नही सवाल सम्बन्धो में आपसी तनाव,नापसन्दगी, समझौते की नाकाम कोशिश, रिश्तों के अपारदर्शिता, और विवाह से बाहर संम्बंधों का है!!


इसके पीछे कोई एक जिम्मेदार नही,,,


बचपन में एक खिलौना तक मनपसन्द पाने वाला ये वही बच्चा बड़ा हुआ होता जिसकी शादी माता पिता बिना उसकी पसन्द जाने कर देते है,

साथ ही कर्तव्य की प्रमुखता के लिये  विवाह के लिये हाँ बोलने वाला ये ही बेटा पारिवारिक सहमति से कहीं ना कहीं दहेज के रुपयों की चाह भी रखता ही है।

उसी तरह दूसरी तरफ देखे तो लड़कियों के माता पिता जितनी शिद्धत से बेटी के लिये दहेज़ जुटाते है उसकी जगह यदि बेटीयों को पढा लिखा कर, उसकी योग्यतानुसार किसी भी तरह के गुण को सीखा कर उन्हें स्वाबलम्बी बनाने में सहयोग करे तो बेटी चाहे मायके में रहे या ससुराल में बसे,,किसी पर निर्भर नही रहेगी ।आत्म निर्भरता अपने आप में एक बहुत बड़ी ताक़त है। 


किन्तु पुरुष वर्ग या ससुराल पक्ष ज्यादातर आत्म निर्भर स्त्री को पसन्द नही करता तो सबसे पहले तो व्यक्ति दर व्यक्ति अपनी सोच का दायरा बदलना चाहिए,,

माता पिता को अपने बेटे को अपनी प्रौपर्टी और बेटी को मात्र एक दायित्व भर नही समझना चाहिए।,,

किन्तु माता पिता ज्यादातर यही करते है, 

बेटी अगर ससुराल सम्बन्धी कोई बात कहना चाहती है कोई तकलीफ शेयर करना चाहती है तो माता पिता या तो इग्नोर करते है,,और बेटीयों को अब वही तुम्हारा घर है जैसे बेबुनियाद कमजोर शब्दों का सहारा देने की कोशिश करते हैं।

एक सामान्य सी मानसिक अवधारणा है समाज में----

 "ना मुर्दे का मुख देखो! ना रुलाई आये"!!

 ज्यादातर इसी तर्ज पर माता पिता शुरुआत में  बेटी की परेशानियों को अनदेखा करने की कोशिश करते है, या पैसा दे कर बेटी की तकलीफ़ कम करने की कोशिश करते है,, 

जबकि ज्यादातर मामलों में पैसा शेर के मुहँ में खून लगना जैसी भूमिका निभाता है।

दूसरी ओर निश्चित रूप से बेटे पर माता पिता का पूरा अधिकार हो,, किन्तु उसे अपनी मिल्कियत ना समझे, उसकी भावनाओं और जज़बातों को भी समझना माता पिता का ही दायित्व हो, जीवनसाथी सम्बन्धी उसकी पसन्द नापसन्द सबका ख्याल रखना जहाँ बेटे के सुखद दाम्पत्य के लिये कल्याणकारी होगा वहीं माता पिता के लिये भी उनकी वृद्धावस्था के लिये हितकर रहेगा।


विवाह एक ऐसा बन्धन है जो ना सिर्फ एक पुरुष और स्त्री को पूर्ण करता है बल्कि दो परिवारों को भी एक जुट करता है,, ऐसा नही की केवल स्त्री ही कष्ट झेलती है,, कई बार अति महत्वाकांछि या आत्मकेंद्रित स्त्रीयों की वजह से भी पुरुष और उसका परिवार मानसिक तनाव झेलता है,और परिवार बिखरने में देर नही लगती।


तो क्यों ना अपने बच्चो के सुखद भविष्य की राह में अपनी चाह के साथ एक और कदम बढ़ाये की सर्वप्रथम लड़के लड़की के स्वाबलंबन को सुनिश्चित किया जाए, तत्पश्चात पुनः विवाह सम्बन्ध जोड़ने से पहले लड़का लड़की दोनो की पूर्ण सहमति भी ली जाय।

 तभी इन सम्बन्धो में पारदर्शिता रहेगी,, एक दूसरे का सम्मान रहेगा और जब आपसी सम्बन्ध प्रगाढ़ रहेंगे तो दोनो में से किसी एक को भी बाहरी किसी इतर प्रेमसम्बन्ध की चाह ही नही रहेगी,,

 क्योकि दाम्पत्य सम्बन्धो में कहीं ना कहीं आपस में एक दुसरे से रखी गयी अपेक्षाओं का पूरा ना हो पाना, एक दूसरे की भावनाओं का ख्याल ना रखना, एक दूसरे से जरूरत से ज्यादा ही अपेक्षा और उम्मीद रखना, या फिर उपेक्षित करना भी एक अहम कारण होता है स्वयं सम्बन्धो से दूर होने और इतर सम्बन्धो में समाहित होने के।

 ना जाने कितनी स्त्रियां और कितने पुरूष भी समझौते की जिंदगी जीते है और एक पूरी उम्र उसी समझौते पर निभा जाते हैं।।

 अतः स्मरण रहे,

बच्चे आपका ही अंश है!

आपकी पारिवारिक सम्पदा नही!!

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