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【विंध्य मानक क्षेत्र अमरावती का चौराहा】

 गौरवशाली गुरुवार... 【विंध्य मानक क्षेत्र अमरावती का चौराहा】 उत्तर प्रदेश में स्तिथ मिर्ज़ापुर शहर जितना प्रसिद्ध अपने कालीन व्यवसाय और पीतल के कारोबार से है उससे कहीं ज्यादा इस शहर को माता विंध्यवासिनी के धाम से सम्बध्द कर जाना जाता है,,इस त्रिकोणीय शक्ति पीठ और विंध्य क्षेत्र की महत्वत्ता अपने आप में अद्भुत है।   इतना ही नही, माना जाता है की देश का मानक समय भी माँ विंध्यवासिनी के धाम से तय होता है,, पुराणों में भी इस तथ्य का जिक्र है की लंकापति रावण ने भी विंध्य क्षेत्र को मानक समय स्थल मान कर यहाँ शिवलिंग की स्थापना की थी और इसी मानक को समय के रूप में चिन्हित किया था! विंध्यवासिनी धाम के उत्तर तरफ स्थित प्राचीन विन्ध्येश्वर महादेव मंदिर आज भी भक्तों में प्रसिद्ध है!! लगभग 32.8 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैले विश्व के सबसे सातवें सबसे बड़े देश भारत के मानक समय भारतीय स्टैंडर्ड टाइम का, वर्ष 2007 में, भूगोलविद नई दिल्ली के सौजन्य से विंध्य क्षेत्र के पूरे सर्वक्षण के बाद मिर्ज़ापुर-इलाहाबाद राष्ट्रीय राजमार्ग पर विन्धयाचल स्थित अमरावती चौराहा के पश्चिम तरफ़ नई दिल्ली के सौजन्य से मान

ईश्वर-ख़ुदा****

हर दीपावली वो मायके आती थी, और इन तेरह-चौदह वर्षो में ऐसा कभी नही हुआ की वो मुझसे मिलने ना आये। आती भी क्यों नही,  मैं उसकी मसीहा जो थी! ऐसा उसका कहना था.... हर बार की तरह इस बार भी वो आयी और पूरा दिन साथ बिता,  मेरे समझाने पर शाम को अनमने दिल से चली गयी, उसके अब्बू का हाल-फिलहाल इंतकाल हुआ था और उसे अपनी अम्मी के साथ भी वक्त बिताना ही चाहिए, किन्तु कुछ कड़वे अनुभव उसे  मायके से दिल ना जोड़ने देते थे!  सीढ़ियों से उसे उतरते देखती मैं भी ना जाने कितनी पीछे चली गयी.... पूरे कॉन्फिडेंस से अपने बेटे को देश का भावी क्रिकेटर बताते और प्रतिष्ठित संस्थान में चल रही उसकी ट्रेनिग के यू ट्यूब वीडियो दिखाती ये वही समायरा थी जो बिल्कुल नकारात्मक बातें करती, चिड़चिड़ी सी किंकर्तव्य विमूढ़ हताश माँ के रूप में मुझे मिली थी एक ब्यूटी सलून में , अपनी बारी का इंतजार करते हुए हम दोनो की मुलाकात हुई थी,  और ना जाने क्यों, किस आंतरिक प्रेरणा से वशीभूत मैं उसे अपने साथ घर चलने का निमंत्रण दे बैठी जिसे उसने सहज ही मान भी लिया,,,, कोई जान पहचान नही थी, नाम तक नही पूछा था हम दोनो ने तब एक दूसरे का। वो पहली मुलाकात थी

【इस प्रेम के कई रंग....】

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ईश्वर ने जीवन की सभी संवेदनाए मनुष्य में समाहित की है, जिसमे सबसे गहरी अनुभूति प्रेम की है,बिन इसके हम सब अधूरे, प्यार की परिभाषा प्रति व्यक्ति अलग-अलग है, किसी मे ये संवेदना कम और किसी में बहुत ज्यादा।  इस प्रेम के कई रंग..... 【आकर्षण, राग,आसक्ति, अनुराग】 " आकर्षण " --  प्रेम का पहला चरण मात्र बाह्र रूप ,सौंदर्य, गुण, प्रतिष्ठा या व्यक्तित्व से प्रभावित। "राग" -- आकर्षण से सामीप्य की चाह, सामीप्य का स्वाद तथा और और और प्राप्ति  की प्रबल कामना से जुड़ा निरन्तर प्रयास। दूर होने के कयास मात्र से पीड़ा।। "आसक्ति"--राग  की अत्यधिक प्रबलता मोह का कारण,,,मोह प्रेम का वो भाव जो मन को कमज़ोर बनाता है।" प्रिय से दूर होने का यही भय  "आसक्ति" में परिवर्तित हो जाता है। आसक्ति राग या लगाव की वह स्तिथि जिसमें मोह का बन्धन इतना मजबूत होता जाता है की सही गलत, गुण दोष की विवेचनात्मक क्षमता गौण हो जाती है। जीवन के वास्तविक उद्देश्य  का स्वरूप ही बदल जाता है मार्ग बदल जाता है,,, ना चाह कर भी फिर-फिर वही करता है जिसमें उसे आनन्द की प्राप्ति हो, प्रिय या प्रिय वस्त

**ऊँघती सुबह का जागता चाँद**

 नवंबर की दूसरी तारीख़ और सुबह मौसम जरा सर्द था,मेरी पश्चिम तरफ चाँद अभी सोया नही और सूरज भी अभी जागा ना था। उधर रात भर अकेला ठिठुरता आसमानी टॉर्च चौकीदारी करता रहा,इधर सफ़ेद रुई की रजाई में लिपटा सूरज तान के सोता रहा। चाँद का पारा हाई था....सुबह के साढे पांच-छह बजने को है और सूरज अपनी ड्यूटी से नदारद है! कुँवारे और इश्क़ के मारे सभी, सारी रात टार्च की रौशनी में अपना चाँद तलाशते रहे, और शादीशुदा और बालबच्चेदार थोड़ी और देर से पौ फ़टे की गुहार मन ही मन करुणासिन्धु से लगाते आंखे मूंदे आलस्य में पड़े रहे,,,इक हम जैसे भी इन सब की गवाही बने कान तक शॉल ढके बेमन से ही सही सेहत बनाये रखने को टहलने छत पर चढ़ते मिले.... लो आदिदेव देव की सवारी आयी,मैंने घड़ी से, ये घड़ी मिलायी सवा छह बजने को थे,सूरज आँखे मलता और चाँद आँखे दिखाता ठीक आमने सामने था.... उलाहने देता और चिड़चिड़ाता चाँद! अरुण तुम्हारे ही ठाठ है ,जाड़े में साढ़े छह बजे भी नींद से आँखे लाल है!!और गर्मियों में पाँच बजे सुबह से शाम छह बजे तक दहकते हो और ठंडी में इसके उलट रजाई में दुबके नज़र आते हो ??? शिकायत करूंगा त्रिलोकी से तुम्हारी दायें बाएं जटाओं

नफ़रत!!

आज एक नए किन्तु परिचित शब्द से सामना हुआ, नफ़रत!! बड़ा अजीब शब्द है ना ये भी.... मात्र चार वर्णों के संयोग से बने किन्तु अपने आप में गजब की नकारात्मकता फैलाये! न -------नाराजगी, फ-------फ़ासले, र---------रूठे त----------तन्हा,,,, अर्थात नाराजगी से बने फ़ासले,और रूठ कर हुए खुद में ही तन्हा, है.......ना। अक्सर हम ये सोचते है की फ़लाना हमसे नफ़रत करता है, या मुझे फ़लाने से नफ़रत है ,तभी तो दोनो पक्ष एक दूसरे को नजर उठा कर देखना पसन्द नही करते या फिर दूरियां  ही दूरियाँ है दरम्यां वगरह वगरह,,, वस्तुतः हम या कोई और,नफ़रत की इस डोर को थामते हैं दोनो तरफ से,,,ये किधर भी कम या ज्यादा हो सकती है, या फिर दोनो तरफ से जबरदस्त....... दरअसल होता बिल्कुल इसके उलट है, हम जिससे जितनी ज्यादा नफ़रत करते है अंतर्मन में हम उसे ही सबसे ज्यादा याद करते  है उसके इर्द गिर्द ही घूमती है हमारी विचारधारा,फिर वो चाहे सकारात्मक हो या नकारात्मक,, आख़िर क्यों है ये नफ़रत ??? आलोचनाओं से उपजी नाराजगी! स्वयं से स्वयं को तौल सके ऐसी पारदर्शिता का अभाव ? कमतर होने की बेचारगी, अपने किसी कमज़ोर नस पर ,किसी दुखती रग पर आकस्मिक पड़ता अकार

अटल सत्य

विश्वास या तो है या तो नही, प्यार या तो है या तो नही,, धैर्य की अंतिम सीमा अधीरता, क्रोध का आखिरी चरण विध्वंश.... स्तिथि बीच की कहीं, दरअसल होती ही नही। एक पल में टूटता अटूट विश्वास, एक बन्धन तोड़ता वर्षो का साथ,, संयम अपना खोते जहाँ से हम, वहीं से शुरू होती, दिशाहीनता की पहली शुरुआत।   विश्वास, संयम ,प्रेम की परकाष्ठता समर्पण में ही क्यों.... फिर समर्पण सर्वस्व का, स्वयं में ही शंकित क्यों।  भ्रम "मेरा है"  का इतना क्यों, भ्रम "समाप्ति" का भी आखिर क्यों?? तकदीर का लिखा.... 'जो मेरा है' ,मेरे लिया है बना मुझ तक लौट आना ही है, और जो ना आया, वो मेरा था ही नही.... ये अटल सत्य स्वीकार्य क्यों कर ना हो।।

स्वतंत्र से हम....

 किसी स्त्री को यदि परतंत्र करना हो तो उसकी आर्थिक स्वतंत्रता छीन लो स्त्री स्वयं तुम्हारे अधीन हो जाएगी... पराजित करना हो तो स्त्री से उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छीन लो, स्त्री स्वतः पराजित.... और हमारा समाज हमेशा से यही करता आ रहा है, बदला है, बहुत कुछ बदला है।आज वर्तमान समय में स्त्री कदम से कदम मिला कर या बल्कि दो कदम आगे ही चल रही है, किन्तु वो स्त्री बेटी होती है, पत्नी नही, पत्नी का स्थान आज भी वही है स्त्री स्वतंत्रता का ढोंग करने वाले हमारे इस समाज में गिनती की स्त्रियां समाजिक रूप से सम्मानित है, यहां मैं निश्चित रूप से फ़िल्म उद्योग को शामिल नही करना चाहूंगी क्योंकि मैं आज तक ये फैसला नही कर पायी की फ़िल्म उद्योग में स्त्रियां कामयाबी की चाह में खुद से अपना शोषण स्वयं करने का अधिकार देती है या उस उधोग का आधार ही स्त्री शरीर है। अपवाद स्वरुप उस क्षेत्र को मैं छोड़ देती हूँ ,तब भी कोई ऐसा क्षेत्र नही है जहाँ स्त्री अपनी नीजता का हनन होने से नही रोक पाती,जबर्दस्ती के अभिवादन, प्रशंसा या आलोचना सभी इस क्रम में शामिल है।स्त्री आजादी का ढोल पीटते समाज में स्त्री आज भी वहीं खड़ी है

स्वयं से स्वयं को सीखते हुए

   जन्म की प्रक्रिया में गर्भ से ले कर मृत्यु तक जीवन के हर मोड़ पर प्रत्येक क्षण में हम कुछ सीखते हैं,  मनुष्य से, मनुष्य द्वारा और मनुष्य के लिए, की गयी प्रत्येक अवस्था जीवन की वह स्वाभाविक शिक्षण व्यवस्था है जिसमें हम प्राकृतिक रूप से वह सब सीखते है जो जीवन जीने की दशा में जरूरी है, किंतु इसके अलावा हम बहुत कुछ ऐसा सीखते हैं, जिसे हम अनुभव कहते हैं, अपने आस पास के परिवेश, और वातावरण का असर हमारी जीवन शैली, रहन सहन और सोच विचार पर पड़ता है, सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु स्पष्ट उदाहरण है ...। शास्त्र अनुसार गर्भ प्रवास के अंधकारकाल में भी नारायण स्वयं शिशु के साथ होते हैं प्रत्येक क्षण उसे उसके पूर्वजन्म का स्मरण करते सत्य-असत्य की परिभाषा समझाते हैं ... शिशु जन्म और प्रथम रुदन के बीच का जो एक क्षण का अंतर होता है, ये वही अंतर होता है जिसमें नारायण पूर्व जन्म के स्मरण से उसे मुक्त करते हैं और स्वयं अंतरध्यान होते हैं,  अंधकार से प्रकाश का पहला स्पर्श और नारायण का अलोप ही रुदन का कारण होता है ...।  यहीं से शुरू होता है शिक्षण और संघर्ष का सफर, पहली भूख और माता से दूध पाने के लिए करुण रुदन, तत

संबल

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 ठंडी मोहक हवाएँ बरसते बादल और झूमती पीपल की शाखाये,  मुझे अपनी ओर खींचने को प्रकृति का इतना निमंत्रण काफी है ,, जल का कोई भी स्रोत हो मुझे लुभावना लगता है, समंदर, नदी, तालाब, झरने, बहता पानी, सब मेरे मन को छूते है,  यहां तक ​​की यात्रा के क्षणों में सड़क के किनारे के साथ के साथ पानी से भरे धान के खेत और गड्ढे भी मुझे आकर्षित करते हैं, हरे-हरे खेत पानी से भरे उनके किनारे जैसे मेरे साथ साथ मन ही मन मे दौड़ते, वर्षा ऋतु में में बहुधा दिल करता की बस गाड़ी की गति रुकवा कर उतर जाऊँ, और दौड़ कर पहुँच जाऊँ पानी से भरे हरे हरे मखमली कालीन पर जोर- जोर से कूदते कूदते पानी के उन गड्ढों को छपाक- छपाक की आवाज़ भर दूँ। । ।  मे मन की ये इच्छा मन मे ही रह जाती है…।  बचपन मे पापा और अब फिर पतिदेव नहीं करने देते, शायद दोनो के ह्रदय में मेरी सुरक्षा का दायित्व मेरी खुशी से ज्यादा महत्वपूर्ण था और होना भी चाहिए, हम जिनसे जुड़े होते हैं उनकी सुरक्षा, उनकी देखभाल ही हमारा पहला दायित्व होना चाहिए।   पर मेरे ससुर जी ......  वह कभी नहीं रोकते थे क्योंकि वह भी मेरी ही तरह जलप्रेमी, प्रकृति प्रेमी थे, उन्होंने ह

कल आज और कल के बीच से

अचानक मन का कोना पीछे भाग रहा   बहुत पीछे और पीछे "नब्बे"में जाग रहा  जहाँ नेशनल और zee tv तक झाँक रहा,        स्कूल से घर और कॉलेज से ट्यूशन जान रहा   गलियारे में फिक्स टेलीफोन के तार और    कमरे तक एक्सटेंशन लाने पर सौ सवाल  अठारहवें में पहुँचती बेटी और पिता के माथे पर पड़ते बल का बवाल,  ऊँचा घराना और बेटी की विदाई  इतने के बीच ही थी वो दुनिया समायी  "आज" में लौट जब आयी हूँ हाथों में सेलफोन असँख्य नम्बरों की लिस्ट भी साथ लायी हूँ और साथ आया है अदृश्य एक उन्माद अपनों से दूर, पर मिलों दूर का साथ, अजनबी से प्यार और रिश्तोंकाउपहास             "फेमिनिस्टों  से माफ़ी"  पर, पल्लू ने बहुत बचाया जब तक सिर पर वो आशीर्वाद की तरह फ़हराया  बड़ी सी बिंदी जब तक जगमगाई   गैरों से मर्यादा निभाई   बिंदी का आकार छोटा हो गया,   साथ ही दुपट्टा भी कहीं खो गया और खो गया माँ बेटी के बीच का प्यार जब एक  सी ड्रेस पर विस्तृत हो गया ऑन लाइन कारोबार  ना जाने कितनी शैलजा मिट्टी हो गयी और असंख्य है अभी कतार में.... "मैं" और मेरे जैसी कई, रोज गुज़रती हैं .