**ऊँघती सुबह का जागता चाँद**

 नवंबर की दूसरी तारीख़ और सुबह मौसम जरा सर्द था,मेरी पश्चिम तरफ चाँद अभी सोया नही और सूरज भी अभी जागा ना था।

उधर रात भर अकेला ठिठुरता आसमानी टॉर्च चौकीदारी करता रहा,इधर सफ़ेद रुई की रजाई में लिपटा सूरज तान के सोता रहा।

चाँद का पारा हाई था....सुबह के साढे पांच-छह बजने को है और सूरज अपनी ड्यूटी से नदारद है!

कुँवारे और इश्क़ के मारे सभी, सारी रात टार्च की रौशनी में अपना चाँद तलाशते रहे, और शादीशुदा और बालबच्चेदार थोड़ी और देर से पौ फ़टे की गुहार मन ही मन करुणासिन्धु से लगाते आंखे मूंदे आलस्य में पड़े रहे,,,इक हम जैसे भी इन सब की गवाही बने कान तक शॉल ढके बेमन से ही सही सेहत बनाये रखने को टहलने छत पर चढ़ते मिले....


लो आदिदेव देव की सवारी आयी,मैंने घड़ी से, ये घड़ी मिलायी सवा छह बजने को थे,सूरज आँखे मलता और चाँद आँखे दिखाता ठीक आमने सामने था....

उलाहने देता और चिड़चिड़ाता चाँद!

अरुण तुम्हारे ही ठाठ है ,जाड़े में साढ़े छह बजे भी नींद से आँखे लाल है!!और गर्मियों में पाँच बजे सुबह से शाम छह बजे तक दहकते हो और ठंडी में इसके उलट रजाई में दुबके नज़र आते हो ???


शिकायत करूंगा त्रिलोकी से तुम्हारी दायें बाएं जटाओं में दोनो को सजा बैठे है लीन है जो समाधि में,,,,,


मैं मुस्कुराई,,, दोनो के बीच आयी,

सूरज को ताम्र घट से नहला उसकी नींद भगायी और चंदा को खूबसूरती से उसके ही रिझा, क्रोध से रंग ढलने का डर दिखा बात ख़त्म करा नीचे उतर आयी,

आखिर पड़ोस से अदरख वाली चाय की आती खुशबू मेरे नथुनों में जो समायी।।







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