【इस प्रेम के कई रंग....】
ईश्वर ने जीवन की सभी संवेदनाए मनुष्य में समाहित की है, जिसमे सबसे गहरी अनुभूति प्रेम की है,बिन इसके हम सब अधूरे, प्यार की परिभाषा प्रति व्यक्ति अलग-अलग है, किसी मे ये संवेदना कम और किसी में बहुत ज्यादा।
इस प्रेम के कई रंग.....
【आकर्षण, राग,आसक्ति, अनुराग】
" आकर्षण " -- प्रेम का पहला चरण मात्र बाह्र रूप ,सौंदर्य, गुण, प्रतिष्ठा या व्यक्तित्व से प्रभावित।
"राग" -- आकर्षण से सामीप्य की चाह, सामीप्य का स्वाद तथा और और और प्राप्ति की प्रबल कामना से जुड़ा निरन्तर प्रयास। दूर होने के कयास मात्र से पीड़ा।।
"आसक्ति"--राग की अत्यधिक प्रबलता मोह का कारण,,,मोह प्रेम का वो भाव जो मन को कमज़ोर बनाता है।"
प्रिय से दूर होने का यही भय "आसक्ति" में परिवर्तित हो जाता है। आसक्ति राग या लगाव की वह स्तिथि जिसमें मोह का बन्धन इतना मजबूत होता जाता है की सही गलत, गुण दोष की विवेचनात्मक क्षमता गौण हो जाती है। जीवन के वास्तविक उद्देश्य का स्वरूप ही बदल जाता है मार्ग बदल जाता है,,, ना चाह कर भी फिर-फिर वही करता है जिसमें उसे आनन्द की प्राप्ति हो, प्रिय या प्रिय वस्तु की प्राप्ति की चाह में चिंतन की क्षमता का ह्रास।
"अनुराग"---लक्ष्य प्राप्ति के लिये,लक्ष्य के प्रति आसक्ति आवश्यक है,,सही दिशा जरूरी है ,,प्रेम या लक्ष्य के लिये दृढ़सकल्प तो हो, किन्तु उसमें समर्पण का भाव हो प्राप्ति की चाह नही ,, सांसारिक प्रेम से इतर ईश्वरीय प्रेम इसका स्पष्ट उदाहरण है।
आकर्षण, राग आसक्ति अनुराग ये सारे अनुभव मिल कर प्रेम को उम्र प्रदान करते है,,,
प्रेम जिसके तीन प्रकार---
【सात्विक,राजसिक, तामसिक,】
"सात्विक"---जिसमे सिर्फ समर्पण है, बिषय वासना का कोई भाव नही, पाने की चाह नही बिना देखे बिना पाये भी प्राप्त करने सा भाव,, ईश्वरीय भक्ति की तरह।
"राजसी"---सोच समझ कर, सामाजिक मर्यादा के तहत निश्चित उद्देश्य की प्राप्ति के लिये मान्यता प्राप्त रिश्ते के रुप में प्रेम का जामा पहनना ,स्पष्ट उदाहरण विवाह बन्धन,, इसमें दोंनो पक्ष को प्रेम है या नही इस से ज्यादा फ़र्क़ नही पड़ता, ये सहमति एक समझौते सा भी हो सकता है।।
"तामसिक"---इस प्रेम में बन्धन की बाध्यता, असुरक्षा की भावना, और उस से उपजा क्रोध , आक्रमकता और हिंसा या आवेश में त्याग जैसा परिणाम भी।।
जरूरी नही की हम जिसे प्रेम करे वो भी हमे प्यार करे ही। व्यक्ति से व्यक्ति, प्रति व्यक्ति मानसिक अवधारणा और सोचने समझने, प्रतिक्रिया करने की क्षमता भिन्न होती है,,
क्यों ना एक बार एक कोशिश ऐसी करें जिसमे प्रिय के गुण दोषों को एक साथ सामने रखे, गुणों को मन के पटल से मिटा कर केवल दोषों को ध्यान केंद्रित करे ,,फिर स्वयं ही निर्णायक बने बिना स्वयं से कोई पक्षपात किये ,और तय करे की दोषों के साथ कितना स्वीकार्य तब प्रिय.....
यदि तब भी बहे अश्रुधारा प्रेम की और तब भी याद आये बार बार, तब ख़ुद को स्वीकारने दे की हां यही प्रेम है सच्चा प्रेम,,,तब जो प्रेम उभरेगा उसमे प्रिय की उपस्तिथि अनिवार्य भी नही होगी अंतर्मन सदैव एक दूसरे के पास ही रहेगा।।
प्रेम में समर्पण करे,
समर्पण पाने की कामना व्यर्थ है।
जो लौट कर आया वो मेरा हमेशा से था,
जो आया नही वो मेरा था भी नही।।
Comments
Post a Comment