ईश्वर-ख़ुदा****

हर दीपावली वो मायके आती थी, और इन तेरह-चौदह वर्षो में ऐसा कभी नही हुआ की वो मुझसे मिलने ना आये। आती भी क्यों नही,  मैं उसकी मसीहा जो थी! ऐसा उसका कहना था....

हर बार की तरह इस बार भी वो आयी और पूरा दिन साथ बिता,  मेरे समझाने पर शाम को अनमने दिल से चली गयी, उसके अब्बू का हाल-फिलहाल इंतकाल हुआ था और उसे अपनी अम्मी के साथ भी वक्त बिताना ही चाहिए, किन्तु कुछ कड़वे अनुभव उसे  मायके से दिल ना जोड़ने देते थे!

 सीढ़ियों से उसे उतरते देखती मैं भी ना जाने कितनी पीछे चली गयी....

पूरे कॉन्फिडेंस से अपने बेटे को देश का भावी क्रिकेटर बताते और प्रतिष्ठित संस्थान में चल रही उसकी ट्रेनिग के यू ट्यूब वीडियो दिखाती ये वही समायरा थी जो बिल्कुल नकारात्मक बातें करती, चिड़चिड़ी सी किंकर्तव्य विमूढ़ हताश माँ के रूप में मुझे मिली थी एक ब्यूटी सलून में , अपनी बारी का इंतजार करते हुए हम दोनो की मुलाकात हुई थी, 

और ना जाने क्यों, किस आंतरिक प्रेरणा से वशीभूत मैं उसे अपने साथ घर चलने का निमंत्रण दे बैठी जिसे उसने सहज ही मान भी लिया,,,, कोई जान पहचान नही थी, नाम तक नही पूछा था हम दोनो ने तब एक दूसरे का।


वो पहली मुलाकात थी हमारी, घर पहुंची साथ ,तो बेटियों ने भी हतप्रभ सा स्वागत किया,, किन्तु जल्दी ही मम्मी के जगत माता नामक व्यवहारिक गुण को याद कर समायरा से भी घुल मिल गयी,

हम जल्दी ही अच्छे मित्र की तरह बाते कर रहे थे,,,, उसकी शादी टूट रही थी!, दो भाइयों की इकलौती बहन और गए जमाने के प्रतिष्ठित, परिवार की शिक्षित बेटी ससुराल में तालमेल नही बिठा पा रही थी, गोद में बच्ची लिये भाग आयी थी, फिर कभी वापस ना जाने की ज़िद लिये!!

दोनों पक्ष एक दूसरे से माफीनामे के इंतजार में तलाक़ की दहलीज़ पर बैठे थे।

"बिटिया" राजा की ही क्यों ना हो, मायके में मेहमान ही भली! सदा की वापसी बोझ लगती है!!

अभी समायरा का भी वही वक्त चल रहा था!


 नातिन और बेटी के व्यक्तिगत खर्चे मायके में ऐतराज की चिंगारियों में सुलग रहे थे, पिता  दिल के मरीज थे, भाई-भाभी की भी कच्ची गृहस्थी,और हताशा तथा नकारात्मक- आक्रमक विचारों से जुझती दिशाहीन सी वो लड़की नई-नई माँ थी।

 खुद अच्छे बुरे दौर से गुजरती मैं भी जीवन के कुछ नाज़ुक मोड़ पर थी ,,,किन्तु ईश्वर ने मेरे लिये कुछ अलग, बहुत अलग सा चुना है ये मैं जीवन के अनेक अनुभवों से जान गयी हूँ, वो वक्त भी कुछ ऐसा ही था,,

  मैं अनुभव कर रही थी की तमाम आक्रमकता के बावजूद समायरा में स्त्री सुलभ प्रेम भावना अभी भी उमड़ रही थी, शौहर से नाराज़गी तो थी पर आस टूटी नही थी।

  उस लम्बी पहली मुलाकात में मैं नही जानती मेरे अंदर कौन सी शक्ति काम कर रही थी पर मैंने उसकी आर्थिक परेशानी कम करने के उद्देश्य से अपनी एक परिचित स्कूल संचालिका से समायरा के लिये प्राइमरी शिक्षिका का आश्वाशन ले लिया जो अगले दिन के सफल इंटरव्यू द्वारा पूर्ण भी हुआ।

   दूसरी मुलाकात में अब वो आत्मनिर्भर शिक्षिका के रूप में सामने थी, साथ ही तलाक सम्बन्धी दोनो पक्षो की तकरार की जानकारी के साथ,,

   तीसरी मुलाकात तक मैं ये तय कर चुकी थी की तलाक हल नही इस रिश्ते का, छोटी सी बच्ची आश्रयविहीन हो जाएगी,,चुकी वो जिस धर्म से तालुक्क रखती थी उस वक्त उस मजहब में तलाक़ या दूसरा निकाह बहुत मुश्किल ना था ऐसा मैं उसकी बातो से समझ चुकी थी किन्तु उस बच्ची का क्या होता?

   मेरा साथ अब उसे अच्छा लगता था और बड़ी बहन सा सम्मान देती मुझे सच्चा मित्र मानती थी, मायका भी उसके बदलते स्वभाव और मेरे साथ से कुछ आश्वस्त सा था।


 कुछ और मुलाकातों में मैं उसकी नकारात्मकता धुलने की कोशिश में  लगी थी और  उसके साथ -साथ अपने अंदर भी अनजाने में पनप रहे कुछ ऐसे ही नकारत्मकता को भी,,,पारिवारिक रिश्तों का महत्व, जिम्मेदारियां, पतिधर्म, पत्नी के कर्तव्य, और ना जाने क्या क्या....

घण्टो मैं उसको समझाती , मैं नही जानती कैसे और किस प्रेरणा से,, पर उसके अंदर एक और प्रयास की इच्छा जगा कर उसकी बात उसके शौहर से कराने का निर्णय पति की सहमति से किया जिन्हें अब तक वो बड़े भाई सम्बोधित करने लगी थी।

मायके में ना पता चले इस डर से उसने मेरे ही घर के एक कोने को तलाशा वहाँ सिर्फ वो तीन थे,  मेरा मोबाइल, समारा और दूसरी तरफ से उसके शौहर। पति-पत्नी के बीच शिकायतों, उलाहनों, नाराज़गी के ऐसे घण्टे-घण्टे भर के दो-तीन मुलाकातों के लंबे दौर भी चले।


थोड़े जद्दोजहद, थोड़ी आपसी तकरार और नाराज़गी के बहुत से कवायदों के बाद.....

आज समायरा अपने ससुराल में सुरक्षित, और खुशहाल है, और इस कवायद का सारा राज सिर्फ हम दोनो तक सीमित। तब एक छोटी सी बच्ची गोद में थी, आज एक होनहार भावी क्रिकेटर बेटा उसका नाम रौशन करने को तैयार हो रहा है, बिटिया मेघावी है।


जिंदगी कोई तीन घण्टे की फ़िल्म नही, कोई दो-तीन पैराग्राफ की लघुकथा नही!

जिंदगी अंतिम सांस तक चलने वाली पटकथा की वो रील है जो तब तक नहीं ख़त्म होती जब तक ऊपर वाला आदेश नही देता।

मैं  खुश हूँ की मैने एक गृहस्थी टूटने से बचाई,, एक बच्ची को उसके माता पिता ही नही एक प्यारा छोटा भाई भी मिला।


थोड़ा सा धैर्य, थोड़ी समझदारी, एक और कोशिश और फिर सब कुछ आपका.... बात किसी ख़ास कौम समुदाय या धर्म की नही, आज गाहे बगाहे हर तरफ़ किसी भी समाज से तलाक या सम्बन्ध विच्छेद जैसी घटनाएं सुनने में आ जाती है जो अत्यंत चिंतनीय है...

समायरा का ये कहना की....

" तलाक सिर्फ लफ़्ज़ों का खेल था"

उधर ज़बान से निकलता इधर कहानी ख़त्म थी.....

      तुमने मुझे नई जिंदगी दी!

           तुम मेरी मसीहा!!

   मैंने ईश्वर-ख़ुदा को स्वयं में पा लिया।।

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