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स्वयं से स्वयं को सीखते हुए

   जन्म की प्रक्रिया में गर्भ से ले कर मृत्यु तक जीवन के हर मोड़ पर प्रत्येक क्षण में हम कुछ सीखते हैं,  मनुष्य से, मनुष्य द्वारा और मनुष्य के लिए, की गयी प्रत्येक अवस्था जीवन की वह स्वाभाविक शिक्षण व्यवस्था है जिसमें हम प्राकृतिक रूप से वह सब सीखते है जो जीवन जीने की दशा में जरूरी है, किंतु इसके अलावा हम बहुत कुछ ऐसा सीखते हैं, जिसे हम अनुभव कहते हैं, अपने आस पास के परिवेश, और वातावरण का असर हमारी जीवन शैली, रहन सहन और सोच विचार पर पड़ता है, सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु स्पष्ट उदाहरण है ...। शास्त्र अनुसार गर्भ प्रवास के अंधकारकाल में भी नारायण स्वयं शिशु के साथ होते हैं प्रत्येक क्षण उसे उसके पूर्वजन्म का स्मरण करते सत्य-असत्य की परिभाषा समझाते हैं ... शिशु जन्म और प्रथम रुदन के बीच का जो एक क्षण का अंतर होता है, ये वही अंतर होता है जिसमें नारायण पूर्व जन्म के स्मरण से उसे मुक्त करते हैं और स्वयं अंतरध्यान होते हैं,  अंधकार से प्रकाश का पहला स्पर्श और नारायण का अलोप ही रुदन का कारण होता है ...।  यहीं से शुरू होता है शिक्षण और संघर्ष का सफर, पहली भूख और माता से दूध पाने के लिए करुण रुदन, तत

संबल

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 ठंडी मोहक हवाएँ बरसते बादल और झूमती पीपल की शाखाये,  मुझे अपनी ओर खींचने को प्रकृति का इतना निमंत्रण काफी है ,, जल का कोई भी स्रोत हो मुझे लुभावना लगता है, समंदर, नदी, तालाब, झरने, बहता पानी, सब मेरे मन को छूते है,  यहां तक ​​की यात्रा के क्षणों में सड़क के किनारे के साथ के साथ पानी से भरे धान के खेत और गड्ढे भी मुझे आकर्षित करते हैं, हरे-हरे खेत पानी से भरे उनके किनारे जैसे मेरे साथ साथ मन ही मन मे दौड़ते, वर्षा ऋतु में में बहुधा दिल करता की बस गाड़ी की गति रुकवा कर उतर जाऊँ, और दौड़ कर पहुँच जाऊँ पानी से भरे हरे हरे मखमली कालीन पर जोर- जोर से कूदते कूदते पानी के उन गड्ढों को छपाक- छपाक की आवाज़ भर दूँ। । ।  मे मन की ये इच्छा मन मे ही रह जाती है…।  बचपन मे पापा और अब फिर पतिदेव नहीं करने देते, शायद दोनो के ह्रदय में मेरी सुरक्षा का दायित्व मेरी खुशी से ज्यादा महत्वपूर्ण था और होना भी चाहिए, हम जिनसे जुड़े होते हैं उनकी सुरक्षा, उनकी देखभाल ही हमारा पहला दायित्व होना चाहिए।   पर मेरे ससुर जी ......  वह कभी नहीं रोकते थे क्योंकि वह भी मेरी ही तरह जलप्रेमी, प्रकृति प्रेमी थे, उन्होंने ह

कल आज और कल के बीच से

अचानक मन का कोना पीछे भाग रहा   बहुत पीछे और पीछे "नब्बे"में जाग रहा  जहाँ नेशनल और zee tv तक झाँक रहा,        स्कूल से घर और कॉलेज से ट्यूशन जान रहा   गलियारे में फिक्स टेलीफोन के तार और    कमरे तक एक्सटेंशन लाने पर सौ सवाल  अठारहवें में पहुँचती बेटी और पिता के माथे पर पड़ते बल का बवाल,  ऊँचा घराना और बेटी की विदाई  इतने के बीच ही थी वो दुनिया समायी  "आज" में लौट जब आयी हूँ हाथों में सेलफोन असँख्य नम्बरों की लिस्ट भी साथ लायी हूँ और साथ आया है अदृश्य एक उन्माद अपनों से दूर, पर मिलों दूर का साथ, अजनबी से प्यार और रिश्तोंकाउपहास             "फेमिनिस्टों  से माफ़ी"  पर, पल्लू ने बहुत बचाया जब तक सिर पर वो आशीर्वाद की तरह फ़हराया  बड़ी सी बिंदी जब तक जगमगाई   गैरों से मर्यादा निभाई   बिंदी का आकार छोटा हो गया,   साथ ही दुपट्टा भी कहीं खो गया और खो गया माँ बेटी के बीच का प्यार जब एक  सी ड्रेस पर विस्तृत हो गया ऑन लाइन कारोबार  ना जाने कितनी शैलजा मिट्टी हो गयी और असंख्य है अभी कतार में.... "मैं" और मेरे जैसी कई, रोज गुज़रती हैं .

अहंकार का शमन और मानवता का अनुसरण

जल प्रलय के बाद सम्पूर्ण जगत अंधकार में डूबा था, अनेक अनेक प्रचंड प्रलय को भोग थक हार सुसुप्तावस्था में मानो सो रहा था, तब ईश्वर ने पुनः सृष्टि को रचने का निर्णय लिया, जल के मंथन से पृथ्वी को पुनः प्रकट किया अद्भुत अद्भुत अतुलनीय सौंदर्य से विभूषित कर जगत को सजाया सँवारा, और सबसे सुंदर कृति मनुष्य की रचना की  अनेक अनेक गुणों से , सौंदर्य से उसे सम्पूर्ण किया, साथ ही मिट्टी के उस पुतले में जब प्राण भरे,  तब उस प्राणपूर्ण  काया में अहं, परा अहं  की भी सम्पूर्णता भरी, प्रभु का उद्देश्य मात्र इतना था कि मनुष्य और पशु में अंतर विदित रहे,  किन्तु हम इंसानों ने सबसे पहले सृष्टि के रचयिता की सुंदर सुंदर रचनाओं को अवहेलित कर सिर्फ और सिर्फ अहंकार को ही अपना सम्पूर्ण धन मान लिया, अहंकार, अहं का ही विस्तृत स्वरूप जिसमे हम  स्वयं को ही ईश्वर मान लेते है अपने पुरुषार्थ में इतने डूब जाते है कि ईश्वर के समक्ष खुद को ही खड़ा कर लेते है "अहम स्वयं ईश्वर अस्ति"  अहंकार समस्त रिश्तों, सम्बन्धो और मानवता के मूल्यों को कुचल जब आगे बढ़ता जाता है तो भूल जाता है कि सबसे पहले वह स्वयं को ह

आसमान तकती सीपी

उम्र के एक मुक़ाम जिस पर आप बिलकुल अकेले होते है, जाने पहचाने रोज़ मिलते से चेहरे, फिर भी आप अकेले होते है... खामोशी से करते है बातें और ख़ुद में ही उलझते सुलझते है आप, और कई जोड़ी सवालियां निगाहों से रु बरु होते है.... वो उम्र होती है बरसो से टँगी अबूझ  पेंटिंग की तरह, वक्ती धूल जिन पर चढ़ चुकी होती है, जाले लगे छतों से जुड़ी दीवारों की तरह बदरंग होते रंग से बेरंग....  इंतजार करती है किसी पारखी नज़र का,मौन को समझ सके जो स्वयं भी निशब्द हो.... या फिर होती है उम्र वो, किसी पानी की धार की तरह, बिना शोर बहती नदी की तरह, शांत समंदर की तरह, इंतजार करती है पूर्णिमा के चाँद का, लहरों के वेग को कर सके जो गतिमान तूफान सा....  हाँ उम्र होती है ये आसमान तकती  सीपी की तरह, अमृत बून्द पी सके स्वाति नक्षत्र में और धर सके रूप बहुमूल्य मोती का....

सुनहरा ज्ञान

डिग्रियों में बाँधते क्यों ज्ञान को प्रत्येक पृष्ठ पर काले अक्षरों में सुनहरा ज्ञान बिखरा है, किताबी ज्ञान को सम्पूर्णता मानते, व्यवहारिक ज्ञान के बगैर सब अधूरा मगर, सम्पदा पूर्वजो की, अहंकार का क्यों बने माध्यम, उनसे इतर सिर्फ अपने नाम से क्यों ना अपना वजूद तलाश ले हम, वर ढूंढने निकले जो पुत्री के लिये.... बंगलो और प्रतिष्ठानों से नही, व्यक्तित्व के आधार पर पहचान सके, कुंडलिया मिले ना मिले, IQ लेबल अवश्य जांच ले, आँगन की पौध को जो ना सींच सके  क्या होगा वो भविष्य का प्रबंधन कर्ता, वधु चयन में सौंदर्य को नही विचारों को संस्कारो का आधार मानिये, धैर्य, बुद्धिमता गुण हो जिसमे, नीव गृहस्थी की सदृढ़ उसी से रहेगी एक बार पुनः विचार लें, सीता सी पत्नी तलाश रहे, राम को तो खुद में पहले संवार ले ।।

मजदूर आदमी

ईंट गारे सीमेंट जोड़ता, अपने वजन से ज्यादा बोझ सर पर और उस से भी ज्यादा मन पर ढोता वो इकहरा सा, पसलियों पर जीता आदमी..... बड़े- बड़े आलीशान गगन चुम्बी इमारतों की नींव पूजन में जमीन पर फावड़े चलाता, चमचमाती गाड़ियों से उतरते यजमान संग सिल्कधारी कुर्ते में इतराते पुरोहित देखता आदमी..... बांस की कमज़ोर सीढ़ियों पर माथे पे टीकी ईंटो से संतुलन बना कर चढ़ता आदमी..... पीठ तक धँसी पेट पर गमछे में दिहाड़ी बांध उम्र  बेचता आदमी..... थके कदमों से निढाल उम्मीदी और नाउम्मीदी की साइकिल पर सवार घर की राह पकड़ता आदमी... आधी अधूरी थाली में भी बच्चो को अपने निवाले खिलाता आदमी…. अतृप्त भूख और अमिट थकान को देशी कच्ची में डुबो, घोल पी मदहोश लुढ़कता सा आदमी..…  कोई और नही वो  नाम "मजदूर"  सा आदमी.... मजदूरी को विरासत मानता अगली पीढ़ी को इसे ढोने से ना रोक पाता आदमी.....  मजदूरी कर जीता और सपनों की कब्र में लिपट सो जाता आदमी।।

उतरती सीढियां उम्र की

उतरती सीढ़ियां उम्र की, बुढ़ापे के दहलीज़ सी, ज्यादा दूर नही पर मेनोपॉज की रफ़्तार सी.... उतरता सा यौवन और सिंदूरी माँग के किनारे चांदी के तार सी, अधनींदें और बिना सुकून तकिये पर पलटती जैसे कोई रात सी , अगली सुबह आँखों के घेरे पर बढ़ती कालिमा से लाचार सी....  लिपस्टिक में मुस्कुराते होंठो के किनारे अंग्रेजी में थोड़ा कम दिल दहलाते  "फाइन लाइन" सी, चुपके से छिपा नहाने को ले जाते रसोई के किसी घरेलू उबटन की अन छिपे पैनी नजरों से, बचती पतली धार सी... आईने के आगे आधुनिक परिधानों में भी बेरुखी से  ख़ुद को बेडौल दिखाते शरीर की आह सी, पीछे से मुस्कुराते पति की नजरें  पैनी कटार सी.... सुबह की दौड़ती भागती उम्र, शाम होते होते ढलते सूरज की लाल आग सी, और ना जला पाने की तपिश में स्वयं में ही सुलगती चिड़चिड़ी वाणी के अंदाज सी, हर हफ्ते दो हफ्ते पर मल्टी विटामिनों और दर्दनिवारक गोलियों की मोहताज़ सी.... हाय कैसे कहूँ की मेरी उम्र है अब पैतालीस को भी पार सी, कब बीती, कितनी तेज़ थी रफ़्तार, घड़ी कलेंडर महीने साल नहीं कुछ थी दरकार, कठपुतली सी नाचती, रोती हँसती हँसाती मेरी उम्र ने, मुझ पर स

सहगामिनी

सहगामिनीसहचरी सहगामिनी, तेरे संग चलने वाली अर्धांगिनी तुम्हारी,, वजूद में तुम्हारे खुद को समेटे हुए, एक कदम पीछे ही चल तेरे,अमूल्य सुख को पाती,, प्रकृति का अद्भुत उपहार हूँ, शक्ति अपार हूँ ,किन्तु फिर भी तुम बिन नही साकार हूँ.... प्रतिस्पर्धा नही तुमसे, तेरा साथ चाहिए, मिल कर पूरा कर सके जो स्वप्न्न वो हाथ चाहिए, तेरे कदमों से कदम कुछ इस तरह मिला दूँ की विलीन हो कर भी लीन रह जाये मेरे कदमों के निशान, परिणाम समागम का हो ऐसा, अक्स मेरा आकार तुम्हारा.....       अर्धनारीश्वर सा नाम कहलाये।।

कोई कोना सुकून का

शब्द लेखनी के जाने कहाँ छिप से गए है मानो कागज़ पर उतरने से इनकार कर गए हैं, लॉक डाउन की सड़कों सी वीरान है कविता की डायरी आजकल, इंसानों की तरह ही अल्फ़ाज़ भी मन के घरोंदों में कैद हो गए हैं, ढूंढती हूँ कोई कोना सुकून भरा घर मे ही कहीं, ह्रदय पटल पर उतार सकूँ विचारों के झंझावात जहां, हालात कुछ इस तरह दिखे की,  हर कोई छोटा सा कोना तलाशता मिल रहा...  खुद को थोड़ी देर अजनबी करार दे सके रिश्तों की भीड़ से यहाँ।।