मजदूर आदमी

ईंट गारे सीमेंट जोड़ता, अपने वजन से ज्यादा बोझ सर पर और उस से भी ज्यादा मन पर ढोता वो इकहरा सा, पसलियों पर जीता आदमी.....
बड़े- बड़े आलीशान गगन चुम्बी इमारतों की नींव पूजन में जमीन पर फावड़े चलाता, चमचमाती गाड़ियों से उतरते यजमान संग सिल्कधारी कुर्ते में इतराते पुरोहित देखता आदमी.....

बांस की कमज़ोर सीढ़ियों पर माथे पे टीकी ईंटो से संतुलन बना कर चढ़ता आदमी.....
पीठ तक धँसी पेट पर गमछे में दिहाड़ी बांध उम्र  बेचता आदमी.....
थके कदमों से निढाल उम्मीदी और नाउम्मीदी की साइकिल पर सवार घर की राह पकड़ता आदमी...
आधी अधूरी थाली में भी बच्चो को अपने निवाले खिलाता आदमी….
अतृप्त भूख और अमिट थकान को देशी कच्ची में डुबो, घोल पी मदहोश लुढ़कता सा आदमी..…
 कोई और नही वो  नाम "मजदूर"  सा आदमी....
मजदूरी को विरासत मानता अगली पीढ़ी को इसे ढोने से ना रोक पाता आदमी.....
 मजदूरी कर जीता और सपनों की कब्र में लिपट सो जाता आदमी।।

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